परिवार में बूढ़ों की देखभाल
श्वेता
उपनिषद में कहा गया है, सौ साल तक जीना व काम करना चाहते हैं, इससे बड़ी मुक्ति कोई नहीं हो सकती है। ज़ाहिर है इसमें अच्छा स्वास्थ्य, लंबी उम्र और सामाजिक रूप से उपयोगी ज़िंदगी शामिल है। यह फलसफा काफी सकारात्मक है। इससे हमें यह बढ़ावा मिलता है कि हम बुढ़ापे को जीवन के स्वाभाविक हिस्से के रूप में देखें न कि एक बीमारी या समस्या के रूप में। आधुनिक चिकित्सा से उम्र बढ़ गई है और बुढ़ापे का स्वास्थ्य भी बेहतर हो गया है। जीवन और दुनिया के प्रति सही रुख, सही ढंग से अपनी देखभाल से सौ साल तक सार्थक ज़िंदगी जी पाना असंभव नहीं रह गया है।परिवार में बूढ़ों की देखभाल कैसी होती है यह कुछ आर्थिक स्थिति और संस्कारों से तय होता है। मॉं बाप, दादा दादी, नाना नानी, और बच्चों के बीच के आपसी संबंध भी यह तय करते हैं कि परिवार में बूढ़ों की स्थिति कैसी होगी। बूढ़ों की देखभाल का अर्थ है उनकी शारीरिक और भावनात्मक ज़रूरतें पूरी करना।
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बुढ़ापे में देखभाल
उन्हें आराम करने और सोने के लिए कुछ जगह, हो सके तो अलग जगह दी जानी चाहिए। खाना सादा, पोषक, गर्म, बीच की मात्रा में होना चाहिए। खाना समय के नियमित अंतराल पर दिया जाना चाहिए। बूढ़े लोगों के लिए रात को और खासतौर पर सर्दियों या बरसात में रात को टट्टी, पेशाब के लिए जाना खासा मुश्किल होता है। इसलिए उनके लिए घर के अंदर शौचालय की सुविधा होना काफी ज़रूरी होता है। ऐसे में कूल्हे की हड्डी टूटना काफी आम समस्या होती है। अगर शौचालय जाने के समय कोई उनके साथ रहे तो इस तरह की दुर्घटनाओं से बचाव संभव है। छड़ी की ज़रूरत किसी न किसी उम्र में पड़ जाती है। यह काफी उपयोगी होती है।बूढ़े लोग अकसर शारीरिक रूप से तो अपने आस पास से तालमेल बिठा लेते हैं परन्तु भावनात्मक रूप से ऐसा तालमेल कर पाना आसान नहीं होता है। अपने पति या पत्नि के मरने के बाद उन्हें अकेलापन काफी सालता है। साथ के लोगों और परिवार का सहारा बहुत ज़रूरी रहता है। अगर कोई उन पर ध्यान न दे या उनकी चिंता न करे तो इससे वे आहत हो जाते हैं। और विपत्ति में धैर्य खो बैठते है।
पुरुषों के मुकाबले औरतें बुढ़ापे में बदले हुए हालातों से ज़्यादा आसानी से निपट पाती हैं। बूढ़े विधुर लोग, विधवाओं के मुकाबले ज़्यादा जल्दी हिम्मत खो बैठते हैं। यह भारत का एक सांस्कृतिक पहलू है, कि यहॉं अकेले रहने की भावना और छवि की ज़्यादा आदि होती हैं और पुरुष ऐसी परिस्थितियों को कम स्वीकार पाते हैं। इसके अलावाघर के रोज़मर्रा के पारिवारिक कामकाज में औरतों की भागीदारी पुरुषों के मुकाबले ज़्यादा होती है। घरेलू कामकाज में भागीदारी से बूढ़े लोगों की ज़िंदगियों को मकसद मिलता है । उससे वे बाकी परिवार से भी ज़्यादा जुड़ पाते हैं।
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