लोक सभा चुनाव 2024 : चुनावी उदासीनता, लोकतंत्र के खतरे की सुगबुगाहट
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान सम्पन्न हो चूका है और बिहार के चार लोकसभा क्षेत्र जमुई, नवादा, गया व औरगांबाद के उम्मीदवारों का भाग्य मतपेटियों मे बंद हो चूका है. हमने प्रथम चरण के चुनाव मे मतदाताओं के उदासीनता को देखा, हमने यह देखा की न तो मुसलमानो मे मोदी को हटाने के प्रति पिछली बार वाली उत्सुकता है और न ही मोदी समर्थकों मे मोदी की वापसी का जुनून जो यह दिखाता है कि न मोदी खतरे में है, न राहुल खतरे में है और न ही कोई अन्य राजनेता. वास्तविक खतरा तो यह है कि यदि आने वाले चरणों और आगामी चुनावों मे मतदाताओं का यही रुख रहा तो लोकतंत्र खतरे में है और इसके लिए कहीं न कहीं हमारे राजनेता और चुनावी प्रणाली जिम्मेदार है.
बिहार की सिर्फ 40 सीटों पर सात चरणों में मतदान करवाने के फैसले ने चुनाव को निरस बना दिया है, बची खुची हमारे राजनेताओं द्वारा टिकट वितरण की व्यवस्था ने पूरा कर दिया है. आज मतदाता के सामने यक्ष प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि अमुक व्यक्ति के राजनीतिक विचारों से वह सहमत नहीं है, परन्तु उसके समर्थित दल ने उसी व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बना अपने समर्थको पर थोप दिया है. बड़े राजनेता तो क्षेत्र मे एक बार आते है और अपना भाषण देकर चले जाते है, परन्तु कार्यकर्ता या मतदाता अंत तक थोपे गए उम्मीदवार से अपने मतभिन्नता को दूर नहीं कर पाता और अपने विचार से अलग विचार वाले प्रत्याशी को मत देना जरूरी नहीं समझते. वहीं वह अपने समर्थक दल के विपक्ष वाले उम्मीदवार को भी मत देना मुनासिब नहीं समझते और अंततः वह मतदान केंद्र पर न जाना ही उचित समझते हैं. चुनाव लोकतंत्र का महापर्व होता है और इसमें मतदाता का भाग लेना ही पूजा होती है, परन्तु दुर्भाग्य है हमारा कि हम ऐसे राजनेताओं के जमाने मे ज़ी रहे हैं, ज़ब ये अपनी जीत के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. कोई भी दल या राजनेता इससे अछूता नहीं है. इस बार के चुनाव में युवाओं को मोदी व तेजस्वी दोनों से यह उम्मीद थी कि यह दोनों इस बार स्वच्छ व संकल्पीत युवाओं को राजनीती मे आने का मौका देंगे पर दोनों ही तरफ से युवाओं की भावनाओं को कुचल दिया गया. सबने परिवारवाद, जातिवाद, धनबली, बाहुबली व किसी भी तरह जितने वालों को अपना उम्मीदवार बनाया है. जिस मोदी को लालू का परिवारवाद दिखता है उन्हें चिराग, अशोक चौधरी व अपने दल के नेताओं की पत्नी, बेटे-बेटियों को दिया गया टिकट नहीं दीखता. उन्हें यह नहीं दिखता कि कल तक जो उनका व उनके दल का धुर विरोधी था, उसके सिर्फ एक दिन पहले दल मे शामिल करवा उम्मीदवार बना दिया जा रहा है. युवाओं को इस बार मोदी का लालूराज याद दिलाना भी गंवारा नहीं है, क्योंकि अब युवा जानना चाहता है कि आपने अपने दस वर्षो के शासनकाल मे बिहार को चुनावी वादों के अतिरिक्त कुछ दिया है तो वो बतायें, आप यह बतायें कि आपने किस मजबूरी में नीतीश कुमार को अंतिम क्षणों में एनडीए में शामिल करवाया, आपने किस मजबूरी मे 40 विधानसभा सीट वाले नीतीश कुमार को लोकसभा की 16 सीटे दे दी, क्या आप गारंटी लेते हैं कि इसके बाद नीतीश कुमार पाला नहीं बदलेंगे. युवाओं के यह कुछ ऐसे सवाल है जिनका कोई जबाब मोदी के पास भी नहीं है और ना हीं वह देना चाहते है, क्योंकि अगर इन सवालों पर चर्चा हुई तो उनकी हीं भद्द पिटेगी. युवा बिहार के सभी निवर्तमान सांसदों से उनकी अपने संसदीय क्षेत्र मे किसी एक उपलब्धिजनक कार्य को जानना चाहते हैं, पर बिहार के किसी भी सासंद के पास यह बताने योग्य कार्य नहीं है. दूसरी तरफ युवा मतदाता तेजस्वी से भी जानना चाहते है कि आपने किन परिस्थितियों मे जानबूझकर कांग्रेस को उसकी मनचाही सीटे नहीं दी, जहां आप जीत सकते थे वहां भी आपने प्रत्याशी चयन में दादागिरी दिखाते हुए या तो सीटों की अदलाबदली कर दी या फिर जानबूझकर ऐसे हालत पैदा कर दिए कि चुनाव त्रिकोणीय बन जाय और सामने वाले उम्मीदवार को वाक ओवर मिल जाए. बाकि का कसर चुनाव बाद दल बदल कर एक दूसरे को फायदा पहुंचाने की रणनीति ने भी युवाओं का राजनीती से मोहभंग करने का कार्य किया है और मोदी की विश्वस्नीयता को भी संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है.
अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग कुछ ऐसे नियम बनाये जिससे कि दल के समर्पित कार्यकर्ता को टिकट प्राप्त हो, जितने के बाद किसी भी परिस्थिति में दल बदल सम्भव नहीं हो, चुनावी घोषणा पत्र में किये गए वादे (जो घोषणा पत्र में पुरे विजन व समीकरणों के साथ समाहित हो कि कैसे पुरे होंगे), पुरे नहीं होने पर अगले चुनाव के पूर्व वादों के पूरा न होने के कारणों की पड़ताल की व्यवस्था कर यह नियम बने कि वादे अगर बिना किसी ठोस कारण के पुरे नहीं नहीं हुए तो चुनाव लड़ने पर रोक लगे. यह कुछ ऐसे कदम है जो चुनाव को प्रेरक बनाएंगे और लोकतंत्र के प्रति उभरते खतरे को भी खत्म करने की दिशा मे उपयोगी साबित होंगे. (समरेंद्र कुमार ओझा की रिपोर्ट).
Comments are closed.