पूजा का सबसे प्राचीन रूप रहा है- मूर्ति पूजा
इस पूरी धरती पर पूजा का सबसे प्राचीन रूप रहा है- मूर्ति पूजा, विशेष रूप से देवी की पूजा। विश्व की हर संस्कृति में देवी पूजा की प्रथा थी। पर जैसे-जैसे संगठित धर्मों का उदय हुआ, देवी पूजा की प्रथा धीरे-धीरे नष्ट होती गई। अपनी परम प्रकृति तक पहुंचने की प्रक्रिया में मूर्ति व देवी पूजन को एक सोपान बनाया गया। अधिकतर इंसान खुद को किसी ऐसी चीज से नहीं जोड़ सकते जो उनके अनुभव में नहीं है, इसलिए निराकार ईश्वर की उपासना उनके लिए संभव नहीं है।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तार्किक ज्ञान के बोझ से लदे संगठित धर्मों में मूर्ति पूजा के पीछे छिपे विज्ञान को समझने की दृष्टि नहीं थी। भारतीय संस्कृति इकलौती ऐसी संस्कृति है, जहां पर देवी व मूर्ति पूजा अपने विशुद्ध रूप में आज भी जारी है।
अंग्रेजी शासन काल के दौरान भारत में मूर्ति पूजा की काफी भत्र्सना की गई, भारत के तैंतीस करोड़ देवी देवताओं का खूब मजाक उड़ाया गया। भारत में ऐसी कई संस्थाएं अस्तित्व में आ गईं जिन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध करना शुरू कर दिया, इनमें ब्रह्म समाज प्रमुख था। परंतु इससे अध्यात्म की गहराई में रची-बसी भारतीय सनातन संस्कृति का कुछ नहीं बिगड़ा। कहा जाता है कि ब्रह्म समाज के सहसंस्थापक केशव चंद्र सेन एक बार रामकृष्ण परमहंस से मिलने गए। रामकृष्ण परमहंस मां काली के अनन्य भक्त थे, एक मूर्ति पूजक थे, जबकि केशव चंद्र सेन मूर्ति पूजा के खिलाफ थे और एक कट्टर अनीश्वरवादी थे। वे तर्क से रामकृष्ण की शिक्षाओं का खंडन करके यह साबित करना चाहते थे कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। रामकृष्ण ने उनके साथ कोई तर्क नहीं किया, पर उनकी प्रबल मौजूदगी, दिव्य प्रेम, सरलता और ईमानदारी से केशव इतने मुग्ध हो गए कि अंतत: रामकृष्ण के पैरों पर गिर पड़े। केशव को इस बात का एहसास हो गया कि जिसके बारे में वे सिर्फ बातें कर रहे थे, उसका रामकृष्ण को गहन अनुभव था। रामकृष्ण के अंदर फूट रही दिव्य आभा ने केशव को अपने आगोश में ले लिया था। इस घटना के बाद केशव चंद्र के जीवन को एक नई दिशा मिली।
मूर्ती पूजा का विज्ञान
इस संस्कृति में जीवन के हर पहलू को बहुत गहराई में देखा गया और ऐसी तकनीक और विधियां बनाई गईं जिससे इंसान उस आयाम का अनुभव कर सके जो भौतिक से परे है। अपनी परम प्रकृति तक पहुंचने की प्रक्रिया में मूर्ति व देवी पूजन को एक सोपान बनाया गया।भारत में ऐसी कई संस्थाएं अस्तित्व में आ गईं जिन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध करना शुरू कर दिया, इनमें ब्रह्म समाज प्रमुख था। परंतु इससे अध्यात्म की गहराई में रची-बसी भारतीय सनातन संस्कृति का कुछ नहीं बिगड़ा।अधिकतर इंसान खुद को किसी ऐसी चीज से नहीं जोड़ सकते जो उनके अनुभव में नहीं है, इसलिए निराकार ईश्वर की उपासना उनके लिए संभव नहीं है। मूर्ति निर्माण का एक पहलू है: अलग-अलग रुचियों व रुझाान वाले लोगों के लिए अलग-अलग रूपों को गढऩा। इसका दूसरा पहलू है – मिट्टी व पत्थर की उस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करना यानी उसमें प्राण डालकर एक दिव्य शक्ति का रूप देना।
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