सीवान : ऐतिहासिक धरोहरो में एक भाई-बहन के प्रेम व बलिदान का प्रतीक भैया-बहिनी मंदिर
शाहिल कुमार
आज से कई सौ साल पहले मुगल शासनकाल में बना भाई-बहन के अटूट प्रेम व बलिदान के तौर पर है सीवान के दरौंदा प्रखंड के भीखाबांध स्थित भैया-बहिनी का प्राचीन मंदिर. यह बिहार का एकमात्र मंदिर है जो भाई-बहन के रोचक कहानी पर आधारित है. ऐतिहासिक धरोहर के लिए यह मंदिर हमेशा बिहार के सारण प्रमंडल में सुर्खियों से भरा रहता है.
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भैया बहिनी का यह प्राचीन मंदिर आने वाला सदियों तक लोगों को भाई बहन के त्याग व बलिदान के लिए हमेशा ऐतिहासिक तौर पर याद रहेगा. भाई-बहन के प्रेम व बलिदान की स्मृति में बने इस प्राचीन ‘भैया-बहिनी मंदिर’ में रक्षा बंधन के दिन श्रद्धालु भक्तों का भीड़ उमड़ता है. श्रद्धालु यहां स्थित एक खास पेड़ में राखी बांधते हैं. भाई-बहन के बनें स्मृति पर राखी चढ़ाकर भाइयों की कलाईयों में बांधने की जो परम्परा है वो आज भी बरकरार है.
प्राचीन मंदिर कहाँ है स्थापित
सीवान के महाराजगंज अनुमंडल मुख्यालय से चार किलोमीटर दूर व दारौंदा प्रखंड के भीखाबांध गाँव में ‘भैया-बहिनी मंदिर स्थापित है. वैसे तो पूरे साल श्रद्धालु भक्तों का आना जाना लगा रहता हैं, लेकिन श्रावण पूर्णिमा के रक्षाबंधन और भाद्र शुक्ल पक्ष अनंत चतुर्दशी के दिन यहां की रौनक देखने योग्य बनती है. जहाँ सारण सहित आसपास जिले के श्रद्धालुओं का भीड़ उमड़ पड़ता है. इन खास दिनों पर बिहार सहित उत्तर प्रदेश व झारखंड के अलावा अन्य राज्यों से भी हजारों श्रद्धालु भक्त इस अनोखी मंदिर में मन्नते माँगने पहुँचते हैं.
क्या है मंदिर की ये है रोचक कहानी
भाई-बहन के प्रेम व बलिदान के प्रतीक इस मंदिर से एक कहानी जुड़ी है. जानकार बताते हैं कि सन 1707 ई से पूर्व यानि आज से तीन सौ से भी ज्यादा साल पहले भारत में मुगलो का शासन चल रहा था. उस शासन काल में एक भाई रक्षाबंधन से दो दिन पूर्व अपनी बहन को उसके ससुराल से विदा कराकर डोली से घर ले जा रहा था. तभी दरौदा थाना क्षेत्र के रामगढा पंचायत के भीखाबांध गाँव के समीप मुगल सैनिकों की नजर उन भाई बहनों की डोली पर पड़ी. मुगल सिपाही ने डोली को रोककर भाई सहित बहन को बंदी बना लिए।सैनिकों ने बहन के साथ बदतमीजी करने लगे. भाई ने सैनिकों के दुस्साहस भरे रूप देख विरोध करने लगें।जिस पर भाई व सैनिकों के बिच युद्ध होने लगा. सिपाहियों से लड़ते-लड़ते भाई विरगति को प्राप्त कर गया. इसके बाद असहाय बहन ने अपनी भक्ती भावना से भगवान को पुकारा. तत्पश्चात कहा जाता है कि धरती फटी और दोनों भाई-बहन धरती में समा गए. डोली लेकर चल रहे कहारों ने भी बगल के कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी थी। जानकार ये भी बाताते है कि कुछ साल बाद जहां भाई-बहन धरती में समाए थे उस स्थल पर दो बरगद के पेड़ उग आए. कहें तो कुदरत का देन या मानें तो भाई बहन का अवतार की जो उतपन्न वृक्ष आपस में जुड़ रहता है. मानें तो ऐसा प्रतीत होता है कि भाई अपनी बहन की रक्षा कर रहा है. ये वृक्ष करीब पांच बीघा से भी ज्यादा क्षेत्रों में फैली हुई हैं. इन दोनों पेड़ों के स्थान पर उस जमाने में लोगों ने भैया-बहिनी के ऐतिहासिक धरोहर के स्वरूप स्मृति पिडं बना मिट्टी का मंदिर का निर्माण किए थे. जो अब श्रद्धालु भक्तों के द्वारा पक्के तौर से मंदिर का निर्माण कराया गया है.
मंदिर के प्रति लोगों में त्याग व बलिदान की असीम आस्था जुड़ा है
भाई-बहन के इस बलिदान स्थल के प्रति लोगों में बड़ा ही असीम आस्था जुड़ा हुआ है. रक्षा बंधन के दिन यहां पेड़ में भी राखी बांधी जाती है व भाई-बहन के बनें स्मृति पर राखी चढ़ाकर भाइयों की कलाई में बांधते हैं जो परम्परा आज भी देखने को मिलता है. जानकार ये भी कहते हैं कि रक्षाबंधन के दिन बहन भाई के लिए तो भाई बहन के लिए यहां लम्बे उम्र की कामना की जाती हैं. वही इस प्राचीन मंदिर में भक्तों के द्वारा सच्चे दिल से मांगी गई हर मन्नतें व मनोकमनाए भी पूरा होता हैं.
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